Saturday, March 31, 2007

ऐसा क्यों ?

हंसी एक रोज मैने तन्हा देखी
मैं कुछ पूछता, उससे पहले ही
आंखों में उमड़ता सैलाब,
उपेक्षा की सारी कहानी बयां कर रहा था
और स्वयं पूछ रहा था
ऐसा क्यों ? ऐसा क्यों ?
मैं निशब्द , निरुत्तर,
बस सोच रहा था ऐसा क्यों ?

मन.....

मन

मन, खुले मैदान में,
नव शावकों सा कुलांचे भरता,
मन, कस्तूरी मृग की भांति
अपनी ही नाभि से उत्पन्न,
सुरभि की खोज में भटकता,
मन, मस्तिष्क की देहरी लांघ,
इच्छाओं के विराट समन्दर में गोते लगाता।
मृत्यु के शाश्वत सत्य से भय क्यों खाता है मन,
जानकर भी अंजान बने रहते हैं हम,
सुमिरिनी की डोर पर कब किसका वश चला है।
तो मन, धारित्री और गगन के आभासी मिलन
पर मत इतरा, ये उतना ही झूठ है,
जितना जीवन ।

जब से तुम मनमीत बने हो....

जब से तुम मनमीत बने हो,
कोकिला का कंपित स्वर ही
बजने लगा है अंतर्मन में,
निर्झर की झर झर वाणी ने
स्वर बसा दिये इस निर्जन में,
कोमल हृदय के कण कण में
तुम मेरे संगीत बने हो।
जब से तुम ..................
पल पल प्रतिपल, दिक् दिक् प्रतिदिक्,
नयन निर्मिमेष तुम्हे निहारते,
झंकृत तारों के स्वर भी,
तेरा नाम ही सदा पुकारते,
अंग अंग की भाषा तुम हो
तुम मन की ही प्रीत बने हो ।
जब से तुम ..................

बीता वक्त आज एक बहुत ही लम्बे वक्त के बाद ब्लॉग पर वापसी की है। उम्मीद है कि अब जारी रख पाऊंगा। पता ही नही चला कि ज़िंदगी की जद्दोजहद में वक...