मन
मन, खुले मैदान में,
नव शावकों सा कुलांचे भरता,
मन, कस्तूरी मृग की भांति
अपनी ही नाभि से उत्पन्न,
सुरभि की खोज में भटकता,
मन, मस्तिष्क की देहरी लांघ,
इच्छाओं के विराट समन्दर में गोते लगाता।
मृत्यु के शाश्वत सत्य से भय क्यों खाता है मन,
जानकर भी अंजान बने रहते हैं हम,
सुमिरिनी की डोर पर कब किसका वश चला है।
तो मन, धारित्री और गगन के आभासी मिलन
पर मत इतरा, ये उतना ही झूठ है,
जितना जीवन ।
Saturday, March 31, 2007
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1 comment:
मन तो उन्मुक्त है और इसलिये जीवन में सुख, दुख है।
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