Sunday, April 1, 2007
टीवी पर चटनी
यूं तो चटनी सभी को भाती है। लेकिन आजकल सारे टीवी चैनल्स भी हमे चटनी ही तो परोसने का परोपकारी कार्य कर रहे हैं। खासकर खबरिया चैनल्स। कहने को तो, लोगों तक असली खबरों को पहुंचाने के लम्बरदार हैं लेकिन आलम ये है कि खबर ढूंढों तो गिनी चुनी वो भी फिल इन द ब्लैंक की तरह। ....कुछ साल पहले तक मीडिया में केवल कुछ गिने चुने ऐसे लोगों का जमावड़ा हुआ करता था जो कभी सिविल सर्वेंट बनने के सपनो संजोये आये थे लेकिन किस्मत ने कही और पहुंचा दिया। लेकिन आज मीडिया एक अच्छे खासे करियर का रुप ले चुका है। तमाम विश्वविद्यालयों ने मास कम्यूनिकेशन के कोर्सेज शुरु कर दिये हैं। तमाम विद्यार्थी डिग्री डिप्लोमा के साथ रण में उतरने के लिये तैयार हैं ये बात और है कि उनके पास उस प्रतिभा की कमी है जो चाहिये तो क्या है उनके पास....इस पर बहस फिर कभी.आज तमाम न्यूज चैनल्स की जैसे बाढ़ आ गयी है। हर रोज नये चैनल की घोषणा होती है।..लेकिन हम बात कर रहे हैं कि चैनल्स जो चटनी परोस रहे हैं उसका क्या करें..कहने को तो हम भी खबरनवीस हैं लेकिन.जो जाना सीखा की खबर क्या है वो सारी परिभाषायें उनके मायने बदल गये हैं....खबरों की परिभाषायें बदल रही हैं अब प्रधानमंत्री गरीब किसानों के लिये पैकेज की घोषणा करते हैं तो खबर नही बनती खबर क्या स्क्रोल पर चल जाये तो गनीमत है..लेकिन हां अमिताभ बच्चन छीक भी तो सारे दिन चैनल्स पर छाये रहते हैं। अभिषेक और एश्वर्याराय की शादी की तैयारी ही सर दर्द पैदा कर देती है(दर्दों का खुलासा फिर कभी...)...मटुक-जूली प्रकरण बार बार बारम्बार घंटो का शो बन जाता है क्यों...क्योंकि टीआरपी का खेल है..पैसों का खेल है..सवाल ये है जनता क्या वाकई ये देखना चाहती है जो हम दिखाते हैं या फिर हम वो दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है...किसी के पास जवाब हो तो कृपया करके अवगत कराये....
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बीता वक्त आज एक बहुत ही लम्बे वक्त के बाद ब्लॉग पर वापसी की है। उम्मीद है कि अब जारी रख पाऊंगा। पता ही नही चला कि ज़िंदगी की जद्दोजहद में वक...
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एक दिन तो मुकम्मल मोहब्बत करो रफ्ता रफ्ता यूँ ज़िन्दगी गुज़र जायेगी शाम ठहरी है ठहरी रहेगी सनम यूँ पत्थर न मारो बिखर जायगी ...
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2 comments:
खबरें आजकल ऐसे ही बनतीं हैं!
सही दिशा में सोच रहे हैं। सोचते रहें और लिखते रहें।
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