Sunday, April 15, 2007

सपने..जो अक्सर टूट जाया करते हैं......

खामोश शाम के साथ -साथ
सपने भी चले आतें हैं।
बिस्तर पर लेटते ही
घेर लेते हैं मुझे
और नोचने लगते है अपने पैने नाखूनो से ..
जैसे चीटियों के झुंड में कोई मक्खी फंस गयी हो
घर , कार, कम्प्यूटर, म्यूजिक सिस्टम, मोबाईल , महंगे कपड़े ,डांस पार्टी ,वगैरह -2
मक्खी के शरीर से खून टपकने लगता है..
एक एक सपना बूंद बनकर टपकने लगता
ये लिजलिजा खून.......
हर बूंद सपना नज़र आती है,
बूंद यानी मकान का किराया, राशन , बच्चों की फीस, बिचली , पानी का बिल, अखवार का बिल..........धोबी का बिल, सब्जियों की आसमान छूती कीमतें...
मैं हड़बड़ाकर उठ बैठता हूं.......सपना टूट जाता है....

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